• जागो हुक्मरान न्यूज़

मेघवाल समाज के आराध्य लोक देवता बाबा रामदेव जी महाराज एक सिद्ध पुरुष थे। उन्होंने जीवन पर्यंत सामाजिक असमानता छुआछूत, भेदभाव, पाखण्ड, अंधविश्वास को मिटाने के लिए कार्य किया। हालांकि उनकी आध्यात्मिक क्षेत्र में ही विशेष रुचि रही है लेकिन उसके साथ साथ वे समाज के शोषित,पीड़ित,वंचित वर्ग के लिए भी कार्य करते थे। उनका अधिकांश समय मेघवाल समाज के लोगों के साथ ही व्यतीत होता था। वे उनके साथ भजन कीर्तन करते तथा वाणियों गाते थे। क्योंकि मेघवाल समुदाय के लोग सदियों से आध्यात्मिक प्रवृत्ति के रहे हैं। उस समय उन्हें रिख (ऋषि) कहा जाता था। राजस्थान प्रदेश में मेघरिख खिमण मेघवाल व मेघरिख धारू मेघवाल का विशेष दर्जा था। उत्तम आश्रम जोधपुर के महंत स्वामी रामप्रकाश आचार्य जी ने अपनी पुस्तक रामदेव ब्रह्म पुराण में लोक देवता बाबा रामदेव जी के जीवन दर्शन पर प्रकाश डाला है। वहीं साहित्यकार व लेखिका डॉ. कुसुम जी मेघवाल, स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक भंवर मेघवंशी जी, महान समाज सुधारक स्वामी गोकुलदास जी महाराज,इतिहासकार प्रो.ताराराम जी गौतम व बहुजन साहित्यकार ड़ॉ. एम.एल.परिहार, आकाशवाणी भजन गायक व साहित्यकार रामचन्द्र कड़ेला मेघवंशी, डॉ. सोनाराम विश्नोई आदि शिक्षाविदों ने लोक देवता बाबा रामदेव जी पर अपनी शोधपरक पुस्तकें प्रकाशित की है। उन्हीं को सन्दर्भ ग्रन्थ मानते हुए हमें बाबा रामदेव जी के योगदान को मानना चाहिए। बाबा रामदेव जी का जन्म विक्रम संवत 1409 में चैत्र शुक्ल पंचमी को बाड़मेर जिले की शिव तहसील के गाँव उण्डू-काश्मीर में हुआ था। उनके पिताजी का नाम सायर जी जयपाल मेघवंशी था तथा माताजी का नाम मंगनी देवी था। सायर जी मेघवाल यहाँ के ठाकुर अजमाल जी तोमर की गायें चराने व घरेलू कार्य करते थे। कहते हैं कि अजमाल जी के कई वर्षों बाद एक पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम वीरमदेव था। इधर सायर जी मेघवाल के घर भी पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम रामदेव था। कहते हैं कि पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते हैं। अतः बालक रामदेव बचपन से ही कुछ विचित्र हरकतें करने लगा,जिसका जिक्र उनके पिताजी सायर जी मेघवाल ने अजमाल जी से किया। जब अजमाल जी ने उस बालक को देखा तो उन्हें लगा कि यह कोई साधारण बालक नहीं है। फिर उन्होंने सायर जी मेघवाल से कहा कि इसे तुम रात के समय मेरे घर पर वीरमदेव के साथ पालने में सुलाकर चले जाना और इसकी जानकारी किसी को मत देना। कहते हैं कि उस दिन भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की दूज थी। इसलिए आज भी गाते हैं कि “भादवे री दूज रो चन्दो करे प्रकाश,रामदेव बन आवसुं तो राखी मोटी आस।” फिर अजमाल जी ने एक सभा बुलाई और कहा कि मैं पुत्र प्राप्ति के लिए बारह बार द्वारिका गया हूँ। वहीं पर मुझे भगवान श्री कृष्ण ने साक्षात दर्शन देकर कहा था कि मैं स्वयं तुम्हारे घर अवतार लूँगा। मेरे एक पुत्र वीरमदेव पहले से ही है और अभी स्वयं श्री कृष्ण ने भी अवतार लिया है। मेरे आँगन में उनके आगमन की निशानी के रूप में कुमकुम के पगलिए (चरण) भी बने। कुछ वर्षो बाद अजमाल जी उण्डू-काश्मीर से पोकरण(जैसलमेर) आकर बस गए। ऐसा कहा जाता है कि अजमाल जी का विवाह जैसलमेर जिले के भाटी राजपूत वंश की कन्या मैणादे के साथ हुआ था और पोकरण उन्हें दहेज में दी गई थी। बाबा रामदेव जी ने रूणिचा बसाया जो पोकरण (जैसलमेर) में है। यहाँ पर भैरव नाम का बहुत बड़ा सेठ था जो लोगों को किराना व अन्य जरूरतमंद सामग्री देता था और लोगों से भारी सूद/ब्याज वसूलता था। जिसे बाबा रामदेव जी ने उनको मार कर लोगों को बेगारी से मुक्त करवाया। बाबा रामदेव जी ने स्थानीय लोगों व लाखू बंजारा के सहयोग से पीने के पानी के लिए विशाल तालाब व बावड़ी का निर्माण करवाया। बाबा रामदेव जी अलख उपासक थे तथा वे सिद्ध व नाथ सम्प्रदाय के अनुयायी थे। बाल तपस्वी भक्त शिरोमणि डालीबाई उनकी चचेरी बहन थी। दोनों बहन-भाई सत्संग व वाणी वार्ता के माध्यम से समाज में जन जागृति का कार्य करते थे। रात्रि जागरण को जम्मा कहते हैं। जो रिखियों अर्थात मेघवंश कौम के लोगों द्वारा दिया जाता था और अलख का पाट पूरा जाता था। जिस पर कुंभ कलश रखकर व दो चरण,स्वस्तिक,सूर्य,चन्द्र की आकृतियां उकेरी जाती थी। उनके ध्वज को नेजा कहते हैं जो पंचरंगा नेजा बोलते थे। यह तथागत बुद्ध के पंचशील ध्वज व सिद्धान्तों को इंगित करता है। बाबा रामदेव जी ने 33 वर्ष की अल्पायु में ही विक्रम संवत 1442 भाद्रपद मास शुक्ला एकादशी को जीवित समाधि ले ली,जबकि डालीबाई ने उनसे एक दिन पूर्व जीवित समाधि ली। दोनों की समाधियों रूणिचा में पास पास ही है। जहाँ इनकी समाधियों हैं वहीं पर देवरा बनाया गया,जिसे रामदेवरा कहते हैं। आज यहाँ देश-विदेश से लाखों भक्त उनके दर्शन के लिए आते हैं और अपनी मन्नत माँगते हैं। हो सकता है कि उनका सूफी संतों से अच्छे संबन्ध रहे होंगे जिस कारण उन्हें पीर कहते हैं। यहाँ पर हिन्दू और मुस्लिम दोनों समुदाय के लोगों की आस्था है। यही कारण है कि चन्द्र दूज को हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही चन्द्रमा की स्तुति करते हैं। रामदेव जी की वाणी है जो अक्सर मेघवाल समाज के लोग जम्मा में गाते हैं-बाबा नीची थळवत ने ऊँचो देवरो,बाबा आंधियां तो आवे थारे द्वार। बाबा आंधियों ने आँखियों दिलाय,सवायो लागे देवरो…
अर्थात इस वाणी का सार यह है कि बाबा रामदेव जी अक्सर शोषित समाज को कहते थे कि तुम्हारे पास दो आँखे होते हुए भी तुम तुम्हारे साथ घटित घटनाओं,शोषण व अन्याय के खिलाफ आँखे बंद क्यों कर देते हैं। तुम कद काठी में हष्ट पुष्ट होते हुए भी पंगु क्यों बने हुए हैं, तुम्हें अत्याचारों के खिलाफ लड़ना होगा और कठिन परिश्रम करना होगा। तुम्हारे सन्तान होते हुए भी तुम निःसन्तान की तरह बेवश क्यों बने हुए हैं। आओ हम सब मिलकर सामाजिक विषमता व अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाते हैं। इसी कारण 700 वर्ष बाद भी मेघवाल समाज के लोगों की उनके प्रति गहरी आस्था है और वे उन्हें अपना आराध्य लोक देवता मानते हैं। हर मांगलिक कार्य में बाबा रामदेव जी की ज्योत व आराधना की जाती है।

~ मास्टर भोमाराम बोस
प्रदेश संगठन मंत्री, राजस्थान मेघवाल परिषद (बीकानेर)

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