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डॉ. आंबेडकर का मानना था कि यदि महिलाएं संगठित हो जाएं, तो समाज को सही दिशा देने में अपना अहम योगदान दे सकती हैं-
डॉ. आंबेडकर का मानना था कि यदि महिलाएं संगठित हो जाएं, तो समाज को सही दिशा देने में अपना अहम योगदान दे सकती हैं-

15 अगस्त सन् 1947 की सुबह हम आजाद थे और आज भी हैं, लेकिन भारत की आधी आबादी, भारत की स्वतंत्रता के बाद भी कई रूढ़िवादी बंदिशों में कैद थी। भारत की नारी समाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों पर नाम मात्र का अधिकार लिए, विकास के हर किले को फतह करने के लिए तत्पर थी।

स्वतंत्रता के पहले और बाद में भी महिलाओं को समाज में बराबरी का अधिकार दिलाने के लिए कई आंदोलन किए गए, लेकिन भारत की आधी आबादी के अधिकारों का कानूनी दस्तावेज तैयार किया, भारत के पहले कानून मंत्री डॉ. भीमराव आंंबेडकर ने।

उन्होंने भारत की बेटियों की मजबूती के लिए ऐसा खाका तैयार किया, जिसमें विवाह, तलाक, संपत्ति आदि तमाम मुद्दों पर अधिकार देने की बात की गई। वर्तमान परिपेक्ष्य में हम देखें तो, महिलाओं की दशा सुधारने में मील का पत्थर बना है,’हिंदू कोड बिल’।

डॉक्टर भीमराव आंंबेडकर महिला अधिकारों के बड़े पैरोकार थे। उनका मानना था कि किसी समाज का मूल्यांकन इस बात से किया जाना चाहिए कि उस समाज में महिलाओं की स्थिति क्या है? किसी भी देश की उन्नति और विकास के लिए महिलाओं का समुचित विकास होना सर्वोपरि है। उनका मानना है कि यदि हमें विकास के शिखर पर पहुंचना है तो महिलाओं को शिक्षित और सशक्त बनाना होगा।

डॉ. आबंडेकर का मानना था कि यदि महिलाएं संगठित हो जाएं, तो समाज को सही दिशा देने में अपना अहम योगदान दे सकती हैं। वह भारत की शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए, महिलाओं को शिक्षित करने पर जोर देते थे। वे नारी शक्ति, संघर्ष, साहस, त्याग और बलिदान से भली भांति परिचित थे।

इसलिए उन्होंने वायसराय की कार्यकारी परिषद के श्रम सदस्य के पद पर रहते हुए, महिलाओं के लिए प्रसूति अवकाश की व्यवस्था कराई। संभवतः महिला स्वास्थ्य चिंता को लेकर दर्ज इतिहास की यह पहली छुट्टी रही होगी।

आंंबेडकर का वृहद चिंतन, संविधान में सभी नागरिकों को समान अधिकार दिलाए जाने के साथ-साथ महिलाओं की बराबरी के अधिकारों की वकालत भी करता है, जिसके लिए उन्होंने सन् 1951 में संसद में ‘हिंदू कोड बिल’, पेश किया।

हालांकि जिस दृढ़ता से इस बिल को आंंबेडकर ने बतौर तत्कालीन कानून मंत्री के रूप में पेश किया, उतनी ही शिद्दत से इसका विरोध भी हुआ। लिहाजा पंडित नेहरू को पसंद होते हुए भी यह बिल पास न हो सका। जिसके कारण डॉ.आंंबेडकर ने इस्तीफा दे दिया।

हालांकि प्रथम लोकसभा चुनाव के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू ने, ‘ हिंदू कोड बिल ‘ को कई हिस्सों में बांटकर, कई एक्ट बनाए।

♦️जैसे- ‘हिंदू मैरिज एक्ट 1955’, ‘हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम,1956’, ‘हिंदू दत्तक ग्रहण और पोषण अधिनियम’, हिंदू अवयस्कता और संरक्षक अधिनियम आदि।

भारत की स्वतंत्रता के साथ ही महिलाओं को मताधिकार(वोट) देने का अधिकार, पुरुषों के समान प्राप्त हुआ, लेकिन उन्हें संपत्ति, विवाह और सामाजिक स्वतंत्रता से जुड़े कई मुद्दों पर अधिकार नहीं थे। वे बेटी, पत्नी और बहू के तौर पर घर, खेत, खलियानों से लेकर उद्योग धंधों तक शामिल थीं। लेकिन सामाजिक ताने-बाने की कई चुनौतियों से जूझ रही थीं।
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार एक हिंदू महिला को पिता की संपत्ति में संयुक्त उत्तराधिकारी होने का अधिकार जन्म से ही प्राप्त है…

11 अगस्त 2020 को सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम 2005, की पुनर्व्याख्या की गई।
11 अगस्त 2020 को सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम 2005, की पुनर्व्याख्या की गई।

हिंदू कोड बिल, महिलाओं की समाजार्थिक दशा में सुधार करके, उन्हें तरक्की और कामयाबी से जोड़ता था। हिंदू कोड बिल संसद में पास न करा पाने से अंबेडकर बहुत दुखी थे। उनका मानना था कि संविधान लिखने से भी ज्यादा खुशी उन्हें हिंदू कोड बिल पास होने से होती।

यद्यपि हिंदू कोड बिल को कई टुकड़ों में बांट कर, कई एक्ट पारित किए गए, लेकिन उनकी प्रभाविकता काफी हद तक कम हो गई।

निश्चित तौर पर ये कानून महिलाओं की स्थिति समाज में बेहतर करने में सहायक बने, जिनसे आगे की राह भी आसान हुई है, फिर वह हिंदू महिलाओं के कानूनी अधिकार हों या मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ता और तलाक के नियम में होने वाले बदलाव। आजादी से अब तक के इतिहास में कई महत्वपूर्ण फैसले लिए गए हैं, जो महिलाओं को सामाजिक और आर्थिक मजबूती देते हैं।

अभी हाल ही में 11 अगस्त 2020 को सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम 2005, की पुनर्व्याख्या की गई। जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा अपने हालिया निर्णय में पुरुष उत्तराधिकारियों के समान हिंदू महिलाओं को पैतृक संपत्ति में उत्तराधिकार और सहदायिक( संयुक्त कानूनी उत्तराधिकारी) अधिकार का विस्तार किया गया है। जिसका संबंध हिंदू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम 2005 से है।

सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार एक हिंदू महिला को पिता की संपत्ति में संयुक्त उत्तराधिकारी होने का अधिकार जन्म से ही प्राप्त है। यह इस बात पर निर्भर नहीं करती की पिता जीवित है या नहीं।

यह निर्णय हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के वर्ष 2005 में किए गए संशोधनों के विस्तार पर है। इसके तहत हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 6 में निहित भेदभाव को दूर करने का प्रयास है। ताकि बेटियों को भी संपत्ति में समान अधिकार मिल सके।

यह निर्णय संयुक्त हिंदू परिवारों के साथ जैन, बौद्ध, आर्य-समाज एवं ब्रह्म-समाज से संबंधित समुदायों पर भी लागू किया जाएगा। न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा के अनुसार, ‘बेटियों को बेटों के समान अधिकार दिया जाना चाहिए, बेटी जीवन भर एक प्यार करने वाली बेटी बनी रहती है, बेटी पूरे जीवन एक सहदायिक बनी रहेगी, भले ही उसके पिता जीवित हों या नहीं।’

वास्तव में सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला महिला अधिकारों के साथ, डॉ. आंबेडकर के ‘हिंदू कोड बिल’ की जीत है, जो निश्चित तौर पर महिलाओं के उज्ज्वल भविष्य की नई इबारत लिखेगा। आने वाले समय में महिलाओं के विकास में मील का पत्थर साबित होगा।

लेखक- हरीराम जाट
नसीराबाद, अ
जमेर (राज.) मो.न.-94613-76979

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