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(संविधान निर्माता भारत रत्न बोधिसत्व बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर जी की 133 वीं जन्म जयंती पर विशेष आलेख)
संक्षिप्त परिचय: बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर अपनी चर्चित पुस्तक ‘अछूत कौन और कैसे?’ में लिखते हैं कि महार जाति प्राचीन काल से नाग वंशज जाति रही है। महार जाति के लोग मूल रूप से महाराष्ट्र प्रान्त के ही रहने वाले हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि यह लोग महाराष्ट्र के शासक भी रहे हैं। इसीलिए महार जाति के नाम से महार-राष्ट्र या महाराष्ट्र नाम पड़ा। महार जाति के लोग मजबूत कदकाठी, बहादुर व शूरवीर थे। इसीलिए मुगल बादशाही, मराठा शाही, पेशवाई, ब्रिटिश शासन काल में इस जाति के अधिकांश लोग सेना में रहे हैं। महाराष्ट्र राज्य के रत्नागिरी जिले की खेड़ तहसील में दापोली के पास चारों तरफ से पहाड़ियों से घिरा हुआ अंबावडे एक छोटा सा गाँव है। जहाँ मालोजी राव सकपाल व उनका परिवार रहता था। जो हवलदार की नौकरी से सेवानिवृत्त थे। उनके दो पुत्र व एक पुत्री के बाद चौथी सन्तान हुई जिसका नाम रामजी राव सकपाल था। तीनों भाई अलग अलग पलटनों में सेवारत थे। जो पूना, महू, सतारा, ग्वालियर, बड़ौदा आदि छावनियों में अपना पारिवारिक जीवन आनंदमय ढंग से जीते थे। रामजी राव सकपाल का विवाह सूबेदार मेजर डोंगरे मुरबाडकर की पुत्री भीमाबाई के साथ हुआ तथा वे महू छावनी में रहने लगे। दिनांक 14 अप्रैल 1891 को भीमाबाई की कोख से चौहदवीं व अंतिम सन्तान के रूप में इंदौर के पास महू (मध्यप्रदेश) के मिलिट्री कैम्प में एक होनहार शिशु का जन्म हुआ। जिसका नाम भीमा रखा गया। यही बालक डॉ. भीमराव अंबेडकर के नाम से विश्व प्रसिद्ध हुआ। रामजी सकपाल व भीमाबाई के चार पुत्रियों व तीन पुत्र जीवित रहे। उन्होंने सभी चारों पुत्रियों का विवाह सैन्य अधिकारियों के साथ किए व बालाराव को सेना में तथा आनंदराव को रेलवे की नौकरी में लगा दिया। बालक भीमराव अंबेडकर 5 साल के थे तब उनकी माताजी भीमाबाई का अप्रैल 1896 में सतारा में देहांत हो गया। जिसका बालक भीमा पर गहरा प्रभाव पड़ा और वे फूट फूट कर रोये। कुशाग्र बुद्धि, चंचल,सौम्य स्वभाव के धनी बालक भीमराव को सन 1900 में गवर्नमेंट वर्नाकुलर हाई स्कूल सतारा में कुछ शर्तों के साथ दाखिला मिला। उन्हें बचपन से ही जातिवादी भेदभाव, छुआछूत, तिरस्कार का शिकार होना पड़ा। स्कूल की शर्तों के मुताबिक उन्हें बैठने के लिए घर से बिछोना लेकर जाना पड़ता था जबकि स्कूल में बिछाने के लिए टाट पट्टी मिलती थी। उन्हें कक्षा में बच्चों से 10 फिट दूर कोने में बैठना पड़ता था। वह चाहकर भी ब्लैकबोर्ड को छू नहीं सकते थे तथा स्कूल में पानी पीने के मटके को छू नहीं सकते थे। उन्हें स्कूली बच्चों के साथ खेलने की मनाही थी। ऐसी विकट परिस्थितियों से निजात पाने के लिए रामजी सकपाल बम्बई आकर बस गए और सन 1904 में बालक भीमराव को गवर्नमेंट एलफिंस्टन हाई स्कूल में चौथी कक्षा में एडमिशन करवाया। 04 अप्रैल 1906 को रमाबाई से विवाह हुआ तथा सन 1907 में मैट्रिक परीक्षा (दशवीं) पास की। सन 1910 में एलफिंस्टन कॉलेज से इंटरमीडिएट पास किया तथा सन 1913 में बड़ौदा महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ द्वारा प्रदत्त छात्रवृत्ति से बॉम्बे यूनिवर्सिटी से फ़ारसी व अंग्रेजी विषयों के साथ बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। दिसम्बर 1912 को रमाबाई की कोख से यशवंत पुत्र का जन्म हुआ। सन 1913 में बड़ौदा रियासत की फ़ौज में लेफ्टिनेंट पद पर नौकरी की, लेकिन 15 दिन बाद टेलीग्राम द्वारा समाचार मिला कि उनके पिताजी की तबियत ठीक नहीं है। अतः वे सीधे बम्बई आ गए तथा 02 फरवरी 1913 को रामजी सकपाल का निधन हो गया। परिवार पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और 04 जून 1913 को बड़ौदा महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ ने अमेरिका में पढ़ाई के लिए इस शर्त पर छात्रवृत्ति स्वीकृत की कि उन्हें पढ़ाई पूरी करने के बाद बड़ौदा रियासत में 10 साल तक नौकरी करनी होगी। 15 जून 1913 को पुत्र गंगाधर का बाल्यावस्था में निधन हो गया। 05 जून 1915 को उन्होंने इकोनॉमिक्स, सोशियोलॉजी, हिस्ट्री, फिलोसॉफी, एंथ्रोपोलॉजी व पॉलिटिक्स विषयों के साथ कोलंबिया यूनिवर्सिटी न्यूयॉर्क (अमेरिका) से एम.ए. किया तथा प्राचीन भारत में व्यापार विषय पर थीसिस लिखी। अक्टूबर 1916 में लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स एन्ड पॉलिटिकल साइंस में एडमिशन लिया तथा बैरिस्टर के कानून में बार एट लॉ किया। सन 1917 में कोलंबिया यूनिवर्सिटी से पीएच.डी की डिग्री अवॉर्ड मिला। लेकिन बड़ौदा महाराजा से दुबारा स्कोलरशिप नहीं मिलने के कारण पढ़ाई बीच में ही छोड़कर भारत लौट आए और बड़ौदा महाराज के मिलिट्री सेक्रेटरी के पद पर नियुक्त हुए। यहाँ पर कार्यलय के कार्मिकों व चपरासी द्वारा घोर अपमान, तिरस्कार, भेदभाव करने पर पुनः नौकरी छोड़कर मुंबई आ गए तथा वकालत का कार्य शुरू किया। उन्होंने विदेश में रहकर M.A., M.Sc., Ph.D, D.Sc., D.Litt., L.L.D., Bar at Law किया तथा डॉक्टर की कई मानद उपाधियों के साथ कुल 32 डिग्रियां अर्जित की।
सामाजिक कार्य: बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने 20 जुलाई 1924 को बम्बई में बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना की तथा इस संस्था के माध्यम से अछूतों की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व शैक्षणिक उन्नति के लिए कार्य किए। 19-20 मार्च 1927 को पीने के पानी को लेकर चावदार तालाब के लिए सत्याग्रह किया। 25 दिसम्बर 1927 को हजारों लोगों की उपस्थिति में मनुस्मृति का सार्वजनिक रूप से दहन किया गया। 02 मार्च 1930 को हजारों लोगों के साथ मन्दिर में प्रवेश के लिए सत्याग्रह किया। जिस पर अक्टूबर 1935 में मन्दिर प्रवेश कानून बनने पर कालाराम मन्दिर के दरवाजे अछूतों के लिए खोल दिए गए। सन 1928 में साईमन कमीशन के सामने सयुंक्त चुनाव में जनसंख्या के अनुपात में अछूतों के लिए विभिन्न पदों पर आरक्षण देने की मांग की तथा 1930 में आरक्षण मिला। 24 सितम्बर 1924 को समता सैनिक दल की स्थापना की। इसके अलावा बम्बई प्रांतीय अस्पृश्य परिषद, किसान मोर्चा, म्युनिसिपल सफाई कामगार यूनियन, ऑल इंडिया शेड्यूल कास्ट फेडरेशन, बम्बई पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी, बम्बई में सिद्धार्थ कॉलेज की स्थापना, औरंगाबाद में मिलिंद कॉलेज की स्थापना, शोलापुर में प्रथम छात्रावास आदि कार्य किए।
राजनैतिक संगठन: 15 अगस्त 1937 में स्वतन्त्र मजदूर दल (Indefident Labour Party) व 03 अक्टूबर 1956 में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया तथा 19 जुलाई 1942 में ऑल इंडिया शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की स्थापना की।
गोलमेज सम्मेलन: बाबा साहेब डॉ भीमराव अंबेडकर को वायसराय ने 05 सितम्बर 1930 को अछूतों के नेता की हैसियत से प्रथम गोलमेज सम्मेलन में शामिल होने का आमंत्रण पत्र दिया। यह अछूतों के लिए गौरव की बात थी। लंदन जाने से पहले बम्बई में एक सभा का आयोजन किया गया और वहाँ पर उन्हें मानपत्र व रुपयों की थैली भेंट कर शुभकामनाएं दी। डॉ आंबेडकर ने भरोसा दिलाया कि देश की आजादी की मांग कर स्वराज्य की मांग पर अडिग रहूँगा तथा अछूतों के हकों की पुरजोर मांग करूँगा। वे 04 अक्टूबर 1930 को गोलमेज कॉन्फ्रेंस में भाग लेने के लिए रवाना हुए। उस समय देश में असहयोग आंदोलन चल रहा था। कांग्रेस ने गोलमेज सम्मेलन का बहिष्कार किया और डॉ आंबेडकर को देशद्रोही, अंग्रेजों का पिट्ठू कहा गया। अखबारों ने भी विरोध में खूब लिखा। लेकिन किसी ने भी कॉन्फ्रेंस में भाग ले रहे मुस्लिम प्रतिनिधियों के बारे में कुछ नहीं बोला या लिखा। ब्रिटिश प्रधानमंत्री रम्जे मैकडोनाल्ड की अध्यक्षता में गोलमेज कॉन्फ्रेंस शुरू हुई। 17-21 दिसम्बर 1930 तक डॉ आंबेडकर ने अपने भाषण में ब्रिटिश सरकार की जगह स्वराज्य की मांग की, भारत में अछूतों की दशा में सुधार नहीं लाने पर सरकार को खूब कोसा, गरीबों व किसानों का शोषण करने वाले पूंजीपतियों और जमीदारों की रक्षक सरकार को हटाने की मांग की तथा भावी संविधान में दलितों के साथ न्याय की मांग की। उनके भाषण से सभी सदस्य प्रभावित हुए और अखबारों में भी खूब छपा। बम्बई पहुंचने पर कई संगठनों व समर्थकों द्वारा भारी स्वागत किया गया। उन्हें अछूतों के मसीहा का सम्मान दिया। बड़ौदा महाराजा ने डॉ आंबेडकर की प्रतिभा की खूब तारीफ की तथा भोज में विशेष आमंत्रित किया। उन्हें जुलाई 1931 में दूसरी गोलमेज कॉन्फ्रेंस में आमंत्रित किए गए प्रतिनिधियों की सूची में डॉ आंबेडकर का नाम भी था। जो भारत के नए संविधान का प्रारूप तैयार करने वाली है। विभिन्न अखबारों में डॉ आंबेडकर की देशभक्ति की प्रशंसा होने लगी, देश-विदेश से लोग बधाइयों देने लगे। डॉ आंबेडकर की प्रसिद्धि से गाँधी जी परेशान होने लगे तथा उन्होंने उनसे मिलने की इच्छा जताई। डॉ आंबेडकर 14 अगस्त 1931को अपने सहयोगियों के साथ बम्बई के मलाबार हिल्स स्थित मणि भवन में ठहरे गांधीजी से मुलाकात की तथा 15 अगस्त 1931 को सभी प्रतिनिधि मुलतान नामक समुद्री जहाज से लंदन में दूसरे गोलमेज सम्मेलन के लिए रवाना हुए। 29 अगस्त 1931 को गांधीजी, सरोजनी नायडू व मदन मोहन मालवीय भी लंदन पहुँचे। ज्ञात रहे प्रथम गोलमेज सम्मेलन में गांधीजी ने भाग नहीं लिया था। इस कॉन्फ्रेंस में बोलते हुए गांधीजी ने कहा कि देश के सभी जाति, धर्म, वर्ग की संस्था कॉंग्रेस के एक मात्र प्रतिनिधि के रूप में बोल रहा हूँ। यह भी दावा किया कि कांग्रेस व गांधीजी ही भारत के प्रमुख प्रतिनिधि हैं। जिसका डॉ आंबेडकर ने पुरजोर विरोध किया और गांधीजी अलग-थलग व सफल रहे। 05 नवम्बर 1931 को ब्रिटिश किंग ने सभी प्रतिनिधियों के लिए भोज का आयोजन रखा। यहाँ डॉ आंबेडकर को विचार रखने के लिए आमंत्रित किया। डॉ आंबेडकर ने दलितों की दयनीय दशा का मार्मिक ब्यौरा प्रस्तुत किया, जिस पर किंग ने उन्हें शुभकामनाएं दी तथा अछूतों के भी विशेष प्रतिनिधित्व को स्वीकार किया। ढाई महीने के बाद 01 दिसम्बर 1931 को दूसरा गोलमेज सम्मेलन सम्पन्न हुआ।
भीमाबाई का निधन: 27 मई 1935 को बाबा साहेब के जीवन में दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा। त्याग की मूरत पत्नी रमाबाई सभी को रोता बिलखता छोड़कर राजगृह बम्बई में दुनिया छोड़ गई। रमाबाई के वियोग में जीवन से वैराग्य, बाल मुंडवाए, गेरुए वस्त्र पहनकर सप्ताह भर तक स्वयं को एकांत में बंद कर किया। रमाबाई का बीच में छोड़कर संसार से अलविदा होना बाबा साहेब के लिए अपूरणीय क्षति हुई। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘थॉट्स ऑफ पाकिस्तान’ अपनी पत्नी को समर्पित की।
भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना: बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर एक जाने माने अर्थशास्त्री थे। उन्होंने जून 1916 में पी.एच.डी के लिए थीसिस प्रस्तुत की जिसका शीर्षक था ” नेशनल डिविडेंड ऑफ इंडिया ए हिस्टोरिक एन्ड एनालिटिकल स्टडी।” अर्थशास्त्र में डी.एससी. के लिए मार्च 1923 में उन्होंने अपनी थीसिस ‘द प्रॉब्लम ऑफ द रूपीज इट्स ओरिजिन एन्ड इट्स सॉल्यूशन्स’ प्रस्तुत किया। इस थीसिस को लंदन की पी.एस.किंग एन्ड कम्पनी ने दिसम्बर 1923 में ‘द प्रॉब्लम ऑफ रूपी’ के नाम से प्रकाशित किया। इस पुस्तक में डॉ. अम्बेडकर ने मुद्रा समस्या का अत्यंत विद्वत्तापूर्ण विवेचन किया है। रुपये के संबन्ध में यह पुस्तक अब तक लिखी गई सभी पुस्तकों से श्रेष्ठ है। ‘द टाइम्स लंदन’, द इकोनॉमिस्ट लंदन ने इसे सम्पादकीय में विशेष स्थान दिया। कुछ समय पश्चात ‘रॉयल कमीशन ऑन इंडियन करेंसी एन्ड फाइनेंस’ जिसको हिल्टन युवा आयोग भी कहा जाता है, भारत आये इस आयोग के हर सदस्य के पास ‘द प्रॉब्लम ऑफ रूपीज’ पुस्तक सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में मौजूद थी। डॉ.आंबेडकर ने हिल्टन युवा आयोग के सामने जो विचार पस्तुत किए वे उनकी मुद्रा समस्या के विषय में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान थे। आयोग ने अपनी रिपोर्ट सन 1926 में प्रस्तुत की तथा इसी रिपोर्ट के आधार पर दिनांक 01 अप्रैल 1935 को रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना हुई।
जाति व्यवस्था पर विचार: बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर भारत में प्रचलित वर्ण व्यवस्था एवं जातिप्रथा से बहुत दुःखी थे। 09 मई 1936 को कोलंबिया यूनिवर्सिटी अमेरिका में उन्होंने अपना प्रथम शोध पत्र ‘भारत में जातियों, उनकी उत्पत्ति तथा विस्तार’ पर लिखा। इस शोध पत्र में उन्होंने भारत में मौजूद जातीय समस्या पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि हिन्दू समाज का स्वरूप एक चार मंजिला महल की तरह है, जहाँ हर जाति उस महल की मंजिल के रूप में है। लेकिन इस महल की मंजिलों के बीच कोई सीढ़ी नहीं है। इसलिए जिस मंजिल में उसका जन्म हुआ है, उसे उसी मंजिल में रहना है। नीचे की मंजिल (शुद्र) का मनुष्य कितना भी लायक क्यों न हो, उसे ऊपर की मंजिल में प्रवेश नहीं है और ऊपर की मंजिल का मनुष्य कितना भी नालायक क्यों न हो, उसे नीचे की मंजिल में भेजने की ताकत किसी में नहीं है। बाबा साहेब का सर्वाधिक चर्चित भाषण ‘Annihilation of Caste’ है जो कि लाहौर के जातपांत तोड़क मण्डल (आर्य समाज) के सम्मेलन 1936 के लिए लिखा गया था। जो हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्था व धर्म परिवर्तन के विषयों से आयोजक सहमत नहीं थे, इसीलिए आयोजकों को यह सम्मेलन ही रद्द करना पड़ा। बाद में इस भाषण को ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ पुस्तक के आकार में लाया गया। बाबा साहेब डॉ.आंबेडकर का मानना था कि जाति व्यवस्था को खत्म करने के लिए उस धार्मिक अवधारणाओं को नष्ट करना जरूरी है जिस पर जाति प्रथा आधारित है।
श्रमिकों के कल्याण के लिए कार्य: डॉ. अम्बेडकर श्रमिक कल्याणकारी कानून, भविष्य निधि और रोजगार कार्यालय के जनक भी थे। 02 जुलाई 1942 को वाइसराय की एक्जीक्यूटिव कौंसिल में डॉ. अम्बेडकर साहब को श्रम सदस्य (श्रम मंत्री) के रूप में शामिल किया गया तथा उन्होंने श्रमिकों के कल्याण के लिए कार्य किया।
किसान हितैषी डॉ. अम्बेडकर: सार्वजनिक निर्माण कार्य मंत्री के रूप में डॉ. अम्बेडकर द्वारा किया गया काम उल्लेखनीय है। पद पर रहते हुए उन्होंने अगस्त 1945 में बंगाल और बिहार के लिए एक बहुउद्देश्यीय “दामोदर घाटी विकास योजना”, नवम्बर 1945 में उड़ीसा में वहाँ की नदियों के विकास के लिए एक बहुउद्देश्यीय योजना शुरू की। इसके साथ ही ग्रामीणों क्षेत्रों के विकास के लिए भूमि सुधार और खेती में सहकारिता को लागू किया जाना चाहिए।
नेहरू मंत्रिमंडल में बाबा साहेब का रुतबा: स्वतन्त्र भारत के जवाहरलाल नेहरू देश के प्रथम प्रधानमंत्री बने। नेहरू मंत्रिमंडल में बाबा साहेब डॉ आंबेडकर को कानून मंत्री बनाया गया। वे इस मंत्रिमंडल में एकमात्र गैर कांग्रेसी नेता थे। उनकी कांग्रेस के साथ कभी नहीं बनी। क्योंकि वे गांधीजी की कूटनीतियों व अछूतों के प्रति दिखावे की राजनीति से काफी खिन्न थे। पण्डित नेहरू व सरदार वल्लभ भाई पटेल की दोगली नीतियों से भी वे अक्सर परेशान रहते थे। लेकिन उनकी विद्वत्ता के मुकाबले एक भी मंत्री नेहरू मंत्रिमंडल में नहीं था। इसीलिए सभी उनकी योग्यता का लोहा मानते थे। आपसी मतभेद होते हुए भी प्रधानमंत्री नेहरू व राष्ट्रपति डॉ.राजेन्द्र प्रसाद शर्मा उनका बहुत सम्मान करते थे। नेहरू स्वयं कहते थे कि डॉ आंबेडकर मेरे मंत्रिमंडल का “हीरा” है।
नारी के मुक्तिदाता बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर: डॉ. अम्बेडकर हिन्दू कोड बिल बनाकर लाखों महिलाओं को गैर जिम्मेदार और जालिम पतियों के चंगुल से छुड़ाकर उन्हें सामाजिक न्याय दिलवाना चाहते थे। वे देश की आधी आबादी कही जाने वाली महिलाओं को समानता का हक दिलाना चाहते थे लेकिन सत्ता के केंद्र में बैठे लोगों को यह बात रास नहीं आई और हिन्दू कोड बिल को पास नहीं होने दिया। इसके विरोध स्वरूप डॉ अम्बेडकर साहब ने 27 सितम्बर 1951 को कानून मंत्री पद से स्तीफा दे दिया। वे इस पद पर 4 वर्ष 01 माह और 26 दिन रहे।हालांकि सन 1955-56 में हिन्दू कोड बिल को कई टुकड़ों में जैसे- हिन्दू विवाह कानून, हिन्दू उत्तराधिकार कानून, हिन्दू गोद एवं गुजरा भत्ता कानून,प्रसूति अवकाश का अधिकार आदि जैसे नामों से पास किया गया। अंतरजातीय विवाह को कानूनी मान्यता दिलाने में भी बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर का विशेष योगदान रहा।
पूना पैक्ट 24 सितम्बर 1932: बाबा साहेब का मानना था कि आजादी से पहले यदि अछूतों के मूलभूत अधिकारों की गारंटी नहीं मिली तो आजादी के बाद इसकी कोई गारंटी नहीं होगी कि अछूतों के अधिकारों की रक्षा होगी। अतः उनके अथक प्रयासों से ब्रिटिश सरकार ने ‘कम्युनल अवार्ड’ की घोषणा की। जिसके तहत दलितों के लिए पृथक निर्वाचन प्रणाली व्यवस्था लागू होनी थी, लेकिन गांधीजी इसके विरोध में थे। गांधीजी ने विरोध स्वरूप 20 सितम्बर 1932 को यरवदा जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। इससे भारतीय राजनीति में भूचाल आ गया। सवर्ण लोगों के द्वारा अछूतों के साथ अत्याचार व उनकी बस्तियों जलाई जाने लगी, डॉ आंबेडकर मुर्दाबाद के नारे लगाए जाने लगे तथा उन्हें जान से मारने की धमकियां भी मिलने लगी। इसीलिए गांधीजी के प्राणों की रक्षार्थ 24 सितम्बर 1932 को बाबा साहेब ने अनिच्छा पूर्वक एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। जिसे पूना पैक्ट के नाम से जाना जाना जाता है। पूना समझौते के तहत पृथक निर्वाचन की जगह सयुंक्त निर्वाचन प्रणाली लागू करने पर करार हुआ।
समाचार पत्र व पत्रिकाओं का प्रकाशन एवं सम्पादन: बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर लेखक होने के साथ साथ एक कुशल व सफल सम्पादक भी थे। लेखनी के धनी बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर की स्पष्ट अवधारणा थी कि पत्रकारिता ही जनजागृति का सर्वोत्कृष्ट माध्यम है। उन्होंने 31 जनवरी 1920 में मूकनायक, 03 अप्रैल 1927 में बहिष्कृत भारत, 20 दिसम्बर 1930 में जनता, 04 फरवरी1956 में प्रबुद्ध भारत, 23 जुलाई 1927 में समता नाम से पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित की व सम्पादन किया। इन पत्रों के अलावा अनेक शोध पत्र भी प्रकाशित किए।
बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर द्वारा रचित प्रमुख पुस्तकें: बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर की साहित्य के प्रति गहरी रुचि थी। वे विश्व की अनेक भाषाओं के जानकार थे। उन्होंने अपने जीवन में दर्जनों शोध प्रबंधन व पुस्तकें लिखी जिनमें मुख्य निम्नलिखित है- (१)भारत में जातियों-उनकी उत्पत्ति, विकास एवं विस्तार, (२) भारत में छोटी जोतें-समस्या और समाधान, (३) रुपये की समस्या: उद्गम और निदान (भारतीय मुद्रा और बैंकिंग का इतिहास), (४) जाति का विनाश, (५) पाकिस्तान विषयक विचार ,(६) पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन, (७) रानाडे,गांधी और जिन्ना, (८) भगवान बुद्ध और उनकी देशनाएँ, (९) राज्य और अल्पसंख्यक, (१०) कांग्रेस व गाँधी ने अछूतों के लिए क्या किया?, (११) शूद्रों की खोज, (१२) अछूत कौन और कैसे?, (१३) हिन्दू धर्म की रिडल्स, (१४) बुद्ध और उनका धम्म, (१५) बुद्ध पूजा पाठ (मराठी) आदि उनकी रचनाएं आज भी जनमानस पर अपनी अमिट छाप छोड़ रही है।
शारदा कबीर से दूसरा विवाह: पत्नी रमाबाई के निधन के बाद बाबा साहेब अंदर से बहुत टूट चुके थे। उनकी सेहत भी दिनों दिन कमजोर होती जा रही थी। ऐसे में अपनेघनिष्ठ मित्रों की सलाह पर उन्होंने 15 अप्रैल 1948 को अपने दिल्ली निवास पर शारदा कबीर से दूसरा विवाह किया। विवाह के बाद उनका नाम डॉ. सविता अम्बेडकर रखा गया।
संविधान निर्माता बाबा साहेब डॉ.भीमराव अंबेडकर: देश को स्वतंत्र होने से पूर्व 02 सितम्बर 1946 को अंतरिम सरकार का गठन हुआ। नेहरू प्रधानमंत्री व डॉ आंबेडकर कानून मंत्री थे। 29 अगस्त 1947 को संविधान सभा की प्रारूप समिति का गठन किया गया। जिसमें बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर को प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया गया। संविधान प्रारूप समिति में माननीय अल्लादी कृष्णा स्वामी अय्यर, डॉ. के.सी.मुंशी, माननीय एन. गोपाल स्वामी अयंगर, माननीय सैय्यद मोहम्मद सैदुल्ला, माननीय बी.एल.मित्तर, माननीय डी.पी. खेतान सदस्य निर्वाचित हुए। राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा को संविधान सभा का अध्यक्ष घोषित किया गया। बाबा साहेब की कड़ी मेहनत और अथक प्रयासों से संविधान 2 वर्ष 11 माह 18 दिन में बनकर तैयार हुआ। संविधान सभा में विस्तृत चर्चा के बाद 26 नवम्बर 1949 को संविधान सभा ने नवनिर्मित संविधान को स्वीकृति प्रदान की तथा 26 जनवरी 1950 को डॉ. अम्बेडकर द्वारा लिखित भारत का संविधान देश में लागू हुआ। 25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में बोलते हुए बाबा साहेब ने कहा कि संविधान चाहें कितना भी अच्छा क्यों न हो, अगर उसे अमल में लाने वाले लोग खराब निकले तो निश्चित रूप से वह अच्छा साबित नहीं होगा। वहीं अगर इसे अमल में लाने वाले लोग अच्छे होंगे तो अच्छा ही साबित होगा। संविधान के अनुच्छेद 14 से 32 में नागरिकों के मूल अधिकारों का विस्तृत वर्णन किया गया है।
बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर के विचार: हालांकि उनका हर एक शब्द हमें जीवन में ऊर्जा देने वाला ही है लेकिन कुछ अंश-
(१) जो कौम अपना इतिहास नहीं जानती ,वह कौम अपने भविष्य का निर्माण भी नहीं कर सकती।
(२) मैं ऐसे धर्म को मानता हूँ जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे की शिक्षा देता हो।
(३) जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता नहीं हासिल कर लेते,कानून आपको जो भी स्वतंत्रता देता है, वो आपके लिए बेमानी है।
(३) जो धर्म जन्म से एक को श्रेष्ठ और दूसरे को नीच बनाए रखें,वह धर्म नहीं,केवल गुलाम बनाए रखने का षड्यंत्र है।
(४) मैं किसी समुदाय की प्रगति महिलाओं ने जो प्रगति हासिल की है, उससे मापता हूँ। शिक्षा जितनी पुरुषों के लिए आवश्यक है उतनी ही महिलाओं के लिए भी जरूरी है।
(४) ऐ! भारत के गरीबों, दलितों, अछूतों, शोषितों! तुम्हारी मुक्ति का मार्ग धर्मशास्त्र व मन्दिर नहीं है बल्कि तुम्हारा उद्धार उच्च शिक्षा, व्यवसायी बनाने वाले रोजगार तथा उच्च आचरण व नैतिकता में निहित है। तीर्थ यात्रा, व्रत, पूजा-पाठ व कर्मकांडों में अपना कीमती समय बर्बाद मत करो। धर्म ग्रन्थों का अखण्ड पाठ करने, यज्ञों-हवनों में आहुति देने व मंदिरों में माथा टेकने से तुम्हारी दासता दूर नहीं होगी, तुम्हारे गले में पड़ी तुलसी की माला गरीबी से मुक्ति नहीं दिलाएगी। काल्पनिक देवी-देवताओं की मूर्तियां के आगे नाक रगड़ने से तुम्हारी भुखमरी, दरिद्रता व गुलामी दूर नहीं होगी। अपने पुरखों की तरह तुम भी चीथड़े मत लपेटो, सड़ा गला अनाज खाकर जीवन मत बिताओ, दड़बे जैसे घरों में मत रहो और इलाज के अभाव में तड़प-तड़प कर जान मत गंवाओ। भाग्य व ईश्वर के भरोसे मत रहो, तुम्हें अपना उद्धार खुद ही करना है। गन्दी वस्तुओं व नशीले पदार्थों से परहेज करो। धर्म मनुष्य के लिए है, मनुष्य धर्म के लिए नहीं और जो धर्म तुम्हें इंसान नहीं समझता वह धर्म नहीं अधर्म का बोझ है। जहाँ ऊंच-नीच की व्यवस्था है वह धर्म नहीं, गुलाम बनाए रखने की साजिश है।
(५) आज यह कारवां जिस जगह पर है, मैं इसे बड़ी मुसीबतों के साथ असहनीय शारीरिक कष्ट सहकर,अपने विरोधियों से संघर्ष कर व मुश्किलों का सामना करके लाया हूँ। तुम्हारा कर्तव्य है कि यह कारवां सदा आगे ही बढ़ता रहे,चाहे कितनी भी मुश्किलें व रुकावटें क्यों न आए। यदि मेरे अनुयायी इसे आगे न बढ़ा सकें तो यहीं छोड़ दे लेकिन किसी भी हालत में इसे पीछे न जानें दें। यही मेरा अंतिम सन्देश है।
बौद्ध धम्म की दीक्षा एवं 22 प्रतिज्ञाएं: भारतीय बौद्ध महासभा राष्ट्रीय बौद्ध संगठन है। बाबा साहेब ने इसकी स्थापना 04 मई 1955 को मुंबई में की थी। वे गौतम बुद्ध की शिक्षाओं से बहुत प्रभावित थे। 12 मई 1956 को बीबीसी (B.B. C. रेडियो) लंदन से वार्ता करते हुए डॉ. अम्बेडकर ने कहा, मैं बौद्ध धम्म को प्राथमिकता देता हूँ। क्योंकि यह एक साथ सयुंक्त रूप से तीन सिद्धांत (प्रज्ञा, करुणा और समता) प्रतिपादित करता है, जो कोई और नहीं करता। 13 अक्टूबर 1935 को उन्होंने येवला (नासिक) में घोषणा की थी कि ‘यद्यपि मेरा जन्म हिन्दू धर्म में हुआ ये मेरे वश में नहीं था,लेकिन मैं हिन्दू धर्म में रहकर मरूंगा नहीं।’ बाबा साहेब डॉ.भीमराव अंबेडकर ने 14 अक्टूबर 1956 को लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धम्म की दीक्षा लेकर भारत में लुप्तप्राय हो गए बौद्ध धम्म को पुनः स्थापित किया और एक नई धम्म दीक्षा विधि द्वारा 22 प्रतिज्ञाएं दिलाकर धम्म की जड़ें मजबूत की। उन्हें बौद्ध भिक्षुओं द्वारा बोधिसत्व की उपाधि दी गई। डॉ. अम्बेडकर साहब कहते थे कि तथागत बुद्ध के कारण ही आज विश्व के अन्य देशों में भारत की पहचान है। वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि बौद्ध धम्म अपनाकर भारत पुनः ही विश्व को समता, स्वतंत्रता व बन्धुता का संदेश दे सकता है और दुनिया को नई राह दिखा सकता है।
बाबा साहेब की शंका जो सही साबित हुई: बाबा साहेब डॉ भीमराव अंबेडकर अपने जीवन के अंतिम दिनों में अकेले में रोते हुए पाए गए। 18 मार्च 1956 को आगरा के रामलीला मैदान में दिए गए अपने ऐतिहासिक भाषण में बाबा साहेब ने कहा कि आज शिक्षा प्राप्त करके हमारे बहुत से लोग उच्च पदों पर पहुंच गए हैं, परन्तु इन पढ़े-लिखे लोगों ने मुझे धोखा दिया है। मैं आशा कर रहा था कि उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे समाज की सेवा करेंगे किंतु मैं देख रहा हूँ कि छोटे और बड़े क्लर्कों की एक भीड़ एकत्रित हो गई है,जो अपनी तोंद (पेट) भरने में मस्त हैं। मेरा आग्रह है कि जो लोग शासकीय सेवाओं में नियोजित हैं, उनका कर्तव्य है कि वे अपने का 20 वां भाग (5%) अपनी स्वेच्छा से समाज सेवा कार्य हेतु दें, तभी समाज प्रगति कर सकेगा अन्यथा केवल चंद लोगों का ही सुधार होता रहेगा।
बाबा साहेब जी का परिनिर्वाण: बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर जी 05 दिसम्बर 1956 की रात अपने सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ “बुद्ध और उनका धम्म” की भूमिका पूर्ण लिखकर सो गए। 06 दिसम्बर 1956 को सवेरे छ: बजे नौकर चाय लेकर गया तो बाबा साहेब चिर निद्रावस्था में ही चल बसे थे। रात को किस समय उनका देहांत हुआ, यह कोई न जान सका। वह चुपचाप ही चल दिए। उनकी मृत्यु के समाचार से देश की राजधानी दिल्ली और देश-विदेश में शोक छा गया। उनके आवास 26, अलीपुर रोड़, दिल्ली पहुंचकर तत्कालीन नेताओं ने उनको मार्मिक श्रद्धांजलि समर्पित की। उनके शव को विशेष विमान से दिल्ली से मुंबई ले जाया गया। मुम्बई में उनके अंतिम दर्शन के लिए भीड़ इतनी ज्यादा थी कि बंबई के माहिम और कुर्ला से रानी बाग तक के क्षेत्र की जनता ने बिना सोए ही सारी रात बिता दी। 07 दिसम्बर 1956 दोपहर के दो बजे बाबा साहेब की परिनिर्वाण यात्रा राजगृह, बम्बई से शुरू हुई। इस यात्रा में लगभग 20 लाख लोग शामिल हुए थे। पांच मील लंबी महायात्रा शाम साढ़े पांच बजे शिवाजी पार्क पहुँची। बौद्ध भिक्षुओं ने अंत्य-विधि पूरी की तथा उनके पुत्र यशवंत राव अम्बेडकर ने अग्नि संस्कार किया। सशस्त्र पुलिस दल ने आकाश में खाली गोलियां दागकर उन्हें श्रद्धाजंलि अर्पित की। इसके बाद भिक्खु डॉ. भदन्त आनंद कौसल्यान ने त्रिशरण, पंचशील का उच्चारण करवाकर लगभग तीन लाख लोगों को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी। दादर (बम्बई) के किनारे बाबा साहेब का अंतिम संस्कार किया गया है उस स्थान को चैत्य भूमि के नाम से जाना जाता है।
भारत रत्न सम्मान: बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर को 31 मार्च 1990 में मरणोपरांत तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी.सिंह सरकार द्वारा भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान “भारत रत्न” से सम्मानित किया गया। भारत सरकार ने उनकी 100 वीं जयंती पर डाक टिकट व सिक्के जारी किए। कोलंबिया यूनिवर्सिटी अमेरिका ने उनके सम्मान में कांस्य की प्रतिमा स्थापित कर उन्हें द सिम्बल ऑफ नॉलेज (ज्ञान का प्रतीक) से सम्मानित किया है।
सन्दर्भ- (१) घर-घर बाबा साहेब- बीरबल सिंह बरवड़, भीम प्रवाह।
(२) भारत रत्न बाबा साहेब अंबेडकर- डॉ. एम.एल.परिहार।
(३) भारत का संविधान- संकलन कुशालचन्द्र।
(४) भारत की मूल सांस्कृतिक विरासत के ध्वजवाहक- श्री चेतन प्रकाश नवल, शिक्षाविद जोधपुर।
(५) युग पुरुष बाबा साहेब डॉ.आंबेडकर- बौद्धाचार्य शांति स्वरूप बौद्ध।
आलेख: मास्टर भोमाराम बोस
प्रदेश महामंत्री (संगठन): भारतीय दलित साहित्य अकादमी (राजस्थान)
सम्पर्क- 9829236009