• जागो हुक्मरान न्यूज़
प्राचीन काल में भारतवर्ष में जितने भी पर्व, उत्सव, त्यौहार आदि प्रकृति व पर्यावरण संरक्षण एवं संवर्द्धन के लिए मनाए जाते थे। इन अवसरों पर स्त्री-पुरुष हर्षोल्लास के साथ खुशियों मनाते थे।
घर, आँगन, बाड़े, तालाब आदि की सफाई करते थे और एक दूसरे से गले मिलकर आपसी प्रेम व भाईचारे का संदेश देते थे। होली पर्व भी उनमें से एक है। यह पूर्ण रूप से कृषि पर आधारित किसानों व खेतिहर मजदूरों का पर्व था। जो कालांतर में सामंतवाद, पाखण्डवाद अंधविश्वास, अश्लीलता, नशे आदि की भेंट चढ़ गया। फसलें दो प्रकार की होती हैं- एक खरीफ की फसलें व दूसरी रबी की। आम बोलचाल में इन्हें उनालू व सियालू साख भी कहते हैं। खरीफ की फसल जून-जुलाई में बोई जाती हैं तथा सितम्बर-अक्टूबर में कटाई की जाती है। कृषि कार्य से निवृत्त होने पर किसान खुशी का इजहार करने के लिए उत्सव मनाते हैं जिसे दीवाली कहते हैं।
ठीक इसी प्रकार रबी की फसल अक्टूबर में बोई जाती है और मार्च-अप्रैल में कटाई की जाती हैं। रबी की प्रमुख फसलें-गेहूँ, चना, सरसों आदि हैं। यह शीत ऋतु की फसल होने के कारण किसान अपने खेतों की रखवाली करते समय अलाव जलाते थे तथा गेहूँ व चने की बालियों को आग में तपाकर उनके दाने खाते थे। जो स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत ही पौष्टिक व स्वादिष्ट होते हैं। फाल्गुन मास में यह फसल पककर तैयार हो जाती हैं। अतः किसान जब कृषि कार्य से निवृत्त हो जाता था या उनकी फसलें खलिहानों में इकट्ठी कर ली जाती थी तो वे फुर्सत के दिनों में खुशी का इजहार करते थे। स्त्री-पुरुष मिलकर नाच गाने करते थे और घरों में नए अनाज से नाना प्रकार के पकवान बनाए जाते थे। कालांतर में इन पवित्र त्योहारों को मन गढ़ंत किस्से-कहानियों से जोड़ कर धार्मिकता का आवरण चढ़ा दिया गया। यह भी कोई अतिश्योक्ति नहीं है क्योंकि मनुष्य स्वाभाविक रूप से एक सामाजिक प्राणी है। लेकिन इस पवित्र त्यौहार को एक महिला के दहन के रूप में मनाना अंधविश्वास, पाखण्डवाद, सामन्तवाद को बढ़ावा देता है जो सही नहीं है। मनुष्य जल, वायु, अग्नि, पेड़-पौधे,पशु-पक्षी का पूजक रहा है।
एक सवैया है-“राजा, जोगी, अग्नि, जल ज्यांरी उल्टी रीत। डरता रहजो परशुराम ए थोड़ी पाले प्रीत।।” अर्थात जल, वायु, अग्नि जब विकराल रूप धारण कर देते हैं तो यह किसी के वश में नहीं होते हैं। क्योंकि यह उनकी प्रकृति में है। विचारणीय प्रश्न यह है कि जब होलिका की गोद में प्रहलाद (काल्पनिक) को बैठाकर उन्हें आग के हवाले किया जाता है तो स्वाभाविक रूप से दोनों जल जाने चाहिए थे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, होलिका जल गई और प्रहलाद नहीं जला। इससे यह सिद्ध होता है कि पुरूष प्रधानता को हावी बनाया गया है और महिला को कमजोर। प्रतिवर्ष होलिका दहन किया जाता है। लोग नशे में धुत होकर महिलाओं के साथ अश्लील हरकतें करते हैं।
आजकल तो वैमनस्य इतना बढ़ गया है कि कुछ असामाजिक तत्व ऐसे पवित्र पर्वों को धूमिल करने में लगे हुए हैं। महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार, हिंसा, प्रताड़ना जैसे जघन्य अपराध प्रतिदिन घटित हो रहे हैं। आज भी महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार हैं। हालांकि संविधान में उन्हें समानता का अधिकार है लेकिन फिर भी वह गुलामी की बेड़ियों से मुक्त नहीं हुई है। लोग ऐसे अवसरों पर शराब आदि मादक पदार्थों का जमकर इस्तेमाल करते हैं। इस प्रकार की कुप्रथाओं को ढोना वर्तमान में न्याय संगत नहीं है। क्योंकि एक महिला किसी की माँ, पत्नी, बहन आदि अनेक रूप में विश्व की आधी आबादी की मालिक है।
हमें महिलाओं के सशक्तिकरण व उनके सर्वांगीण विकास के लिए आगे आना होगा। बालिका शिक्षा को बढ़ावा देना होगा। बाल विवाह, कन्या भ्रूण हत्या, दहेज प्रताड़ना, महिला हिंसा, महिला हत्या, महिला दुष्कर्म जैसी आपराधिक घटनाओं से मुक्त होना होगा। आइए हम सभी होलिका दहन के पर्व पर एक संकल्प लें कि हम अहिंसा का पालन करेंगे, महिलाओं के साथ समानता का व्यवहार करेंगे तथा सामाजिक कुरीतियों, कुप्रथाओं, बुराइयों, रूढ़िवादी परम्पराओं का बहिष्कार करेंगे। हम मृत्युभोज जैसी कुरीति को जड़मूल से समाप्त कर,नशा मुक्त समाज का निर्माण करेंगे।
हम देश व समाज के लिए सुयोग्य नागरिक बनकर तन-मन-धन से सेवा करेंगे तथा प्रकृति का संरक्षण व संवर्धन करेंगे। हम अहिंसा के मार्ग पर चलकर मानवतावादी दृष्टिकोण से देश व समाज का नव निर्माण करेंगे। हम आपसी प्रेम और भ्रातृत्व की भावना से दीन दुखियों व प्राणी मात्र की सेवा करेंगे। हमारा संकल्प है कि हम गैर बराबरी की खाई को मिटाकर वसुधैव कुटुंब कम्: की भावना प्रज्वलित करेंगे।
लेखक: मास्टर भोमाराम बोस
प्रदेश महामंत्री (संगठन): भारतीय दलित साहित्य अकादमी (राज. प्रदेश)
सम्पर्क- 98292 36009