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नए आपराधिक कानून और भारतीय आपराधिक न्यायिक व्यवस्था एक चिंतन :- एडवोकेट डूंगरसिंह नामा

भारत में अंग्रेजों के समय से चलें आ रहें तीन आपराधिक कानून 01 जुलाई 2024 से बदल गए हैं पहले जो भारतीय दण्ड संहिता, भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम लागू थें उसमें परिवर्तन करके भारतीय न्याय संहिता 2023, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता 2023 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम 2023 के नाम से लागू किया गया है ।
इन कानूनों को भारत की सर्वोच्च विधायका लोकसभा और राज्यसभा में लोकसभा चुनाव 2023 से पहले करीब 150 विपक्षी निर्वाचित सदस्यों की बर्खास्तगी के बाद उनकी अनुपस्थिति में बिना किसी चर्चा के पारित करके महामहिम राष्ट्रपति के हस्ताक्षर करके गजट नोटिफिकेशन जारी किया गया है कि यह कानून 01 जुलाई से लागू होंगे।

इन कानूनों को हम देखते हैं तो हम पाते हैं कि नई बोतल में पूरानी शराब भरकर पेश किया गया है, पूराने नाम में परिवर्तन करके इतिहास में अपना नाम दर्ज करवाने के चक्कर में देश में लोकसभा चुनावों से पहले एक माहौल बनाने के लिए की हमने अंग्रेजी कानून 1973 को खत्म करके स्वदेशी अर्थात भारतीय कानून का निर्माण किया है जबकि आप अगर नए तीन आपराधिक कानूनों को देखेंगे तो पता चलेगा कि नए कानूनों में करीब करीब ज्यादातर पूराना मसाला ही है नएपन के चक्कर में पूरानी धाराओं का बेवजह क्रम बदला गया है जिससे समस्या ही पैदा होने वाली है इस क्रम बदलने की राजनीति में वकील ,पुलिस, जजों को बेवजह भ्रमित होना पड़ेगा, परेशान का सामना करना पड़ेगा और इसका खामियाजा गरीब अनपढ़ कानून से अनभिज्ञ जनता को भुगतना पड़ेगा, इन नये दिखाई देने वाले कानूनों में वास्तव में नया क्या है जिसका परिणाम क्या होगा?

इन नए आपराधिक कानूनों में जो संशोधन किए गए हैं उनके लिए केन्द्र और राज्य सरकारों ने मूलभूत न्यायिक संस्थाओं के ढांचे का ही निर्माण नहीं किया जिसके कारण पहले से ही न्यायिक कार्यवाही में देरी होती रही है बरसों बरस लोग न्यायिक प्रक्रिया में जेल में सड़ते हैं और उनका न्याय नहीं मिलता हैं पीड़ित पक्ष को न्याय के लिए वर्षों इन्तजार करना पड़ता है उन व्यवस्था के सुधार करने की बजाय धाराओं का क्रम बदलकर इतिहास में नाम दर्ज करवाने की सरकार की रूचि ज्यादा दिखाई पड़ती है।

आपराधिक न्याय प्रणाली: आपराधिक न्याय प्रणाली कानूनों, प्रक्रियाओं और संस्थाओं का एक समूह है जिसका उद्देश्य सभी व्यक्तियों के अधिकारों तथा सुरक्षा को सुनिश्चित करना है तथा अपराधों को रोकना, पता लगाना, दोषियों पर मुकदमा चलाना व दण्डित करना है।
इसमें पुलिस बल, न्यायिक संस्थान,विधायी निकाय और फोरेंसिक लैब एवं जांच एजेंसियों जैसे अन्य सहायक संगठन शामिल हैं।
भारतीय सरकार ने इन संस्थानों को मजबूत नहीं किया है, सरकारों द्वारा न्यायिक संस्थाओं का ढांचा भारतीय व्यवस्था के अनुसार निर्माण नहीं करतीं हैं तब तक किताबों में परिवर्तन करना बेमानी होगा।
आज देश की न्यायालयों में लम्बित प्रकरणों के आंकड़े देखें तो पता चलेगा कि न्याय के लिए जिम्मेदार कौन है ये किताबें या सरकारों की सोच…?

राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड के अनुसार भारतीय न्यायालयों में न्यायपालिका के विभिन्न स्तरों पर 4.7 करोड़ से अधिक मामले न्याय की प्रतीक्षा में है न्याय के लिए दर दर की ठोकरें खा रहे हैं। इसका कारण क्या है। माननीय न्यायालय ने एक प्रकरण में टिप्पणी कर कहा कि एक केस 10-15 वर्ष इसलिए चल रहा है कि उसकी फोरेंसिक जांच डीएनए टेस्ट और एफएसएल टेस्ट रिपोर्ट नहीं आई । देश फोरेंसिक लैब और विशेषज्ञों की कमी से जूझ रहा है और सरकार कानूनो को किताबों में टेक्नोलॉजी से लैस बनाने में लगी हुई है केवल किताबों में प्रावधान करने से कानून मजबूत नहीं होंगे उसको धरातल पर मजबूत करना होगा।

संसाधनों और बुनियादी ढांचे का अभाव: आपराधिक न्याय प्रणाली अपर्याप्त धन जनशक्ति और सुविधाओं से अभावग्रस्त है न्यायाधीशों, अभियोजकों, पुलिसकर्मियों फोरेंसिक विशेषज्ञों और कानूनी सहायक वकीलों की कमी है।
135 मिलियन लोगों के भारत देश में प्रति दस लाख जनसंख्या पर फरवरी 2023 के आंकड़ों के अनुसार केवल 21 न्यायाधीश है, उच्च न्यायालयों में लगभग 400 रिक्तियां है वहीं निचली अदालतों में 35% पद खाली पड़े हैं पांच पांच अदालतों पर एक से दो सरकारी वकील नियुक्त हैं तो समझ सकते हैं कि कैसे परिवर्तन होगा किताबों के परिवर्तन करके। जब तक हम न्याय प्रणाली में सहायक बुनियादी ढांचे को मजबूत नहीं करते हैं।
यह बात सही है कि पूराने कानून और प्रक्रिएं आपराधिक न्याय प्रणाली उन कानूनों और प्रक्रियाओं पर आधारित माना गया है जो 1860 में अंग्रेजों द्वारा बनाए गए थे साइबर अपराध, आतंकवादी, संगठित अपराध माॅब लिंचिंग आदि जैसे अपराध पूराने कानून में कारगर साबित नहीं हो रहें थे परन्तु यह कानून भी कारगर साबित नहीं होंगे जब तक सरकारों द्वारा न्यायिक संस्थाओं का ढांचा भारतीय व्यवस्था के अनुसार निर्माण नहीं करतीं हैं तब तक किताबों में परिवर्तन करना बेमानी होगा।
इन आपराधिक विधेयकों का प्रारूप आपराधिक कानून सुधार समिति 2020 द्वारा तैयार किया गया है जिसमें न्यायपालिका,बार नागरिक समाज या हाशिए पर रहने वाले समुदाय (एससी एसटी वर्गों) का कोई प्रतिनिधि शामिल नहीं था और ना ही इस समिति ने व्यापक परामर्श एवं प्रतिक्रिया के लिए अपनी रिपोर्ट अथवा मसौदा विधेयक भी सार्वजनिक नहीं किया।
जिसके कारण इन नए कानूनों के क्रियान्वयन का परिणाम पर संशयात्मक स्थिति पैदा हो गई है इसके परिणाम सकारात्मक आएंगे ऐसा पूर्ण रूप से नहीं कह सकते हैं क्योंकि
भारतीय दण्ड संहिता में कुल 511 धाराएं थी जो भारतीय न्याय संहिता में 358 धाराएं रह गई है जो धाराएं हटाई गई है वो उदाहरण के लिए धारा 377 प्रकृति के विरुद्ध अपराध अब भारतीय संस्कृति की वाहक सरकारी समलैंगिक संबंधों को इस धारा को हटा कर समर्थन कर रही है पर उनका क्या होगा जिसके साथ जबरदस्ती होती है विचारणीय प्रश्न है?
जबकि ज्यादातर का क्रम बदला गया है जैसे उदाहरण के लिए “आपराधिक बल और हमलें के विषय में” पहले धारा 349 बल जो अब 128, धारा 350 आपराधिक बल जो अब 129 आपराधिक बल, धारा 351हमला जो अब धारा 130 इसी प्रकार लज्जा भंग के लिए धारा 354 से शुरू होता था जो अब धारा 74 कहा जाएगा उसके बाद जो धोखाधड़ी के मामले में एक धारा आम नागरिकों के जुबान पर थी 420 को अब 318(4) के नाम से जाना जाएगा परिभाषा वही है तो जो परिवर्तन किए गए हैं तो उसी क्रम के साथ अन्य धारा को जोड़ा और हटाया जा सकता था परन्तु ऐसा नहीं करके एक नई समस्या को पैदा करने का काम किया गया है।

मानवाधिकारों का संभावित उल्लंघन: विधेयक की आलोचना अस्पष्ट और व्यापक शब्दों का उपयोग करने के लिए की गई जो आरोपियों, पीड़ितों और गवाहों के साथ अन्य हितधारकों के मानवाधिकारों का उल्लघंन कर सकते हैं ।
भारतीय न्याय संहिता की धारा 147 से राज्य के विरुद्ध अपराध में उल्लेख किया है कि भारत के *भीतर या बाहर षड्यंत्र या आपराधिक बल या प्रर्दशन द्वारा आतंकित करने का षड्यंत्र
इसी प्रकार धारा 152 भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरें में डालने वाले कार्य ।
को कानून में डाल कर सरकार के विरुद्ध उठने वाली आवाज को दबाने का कानूनी अधिकार सरकार ने प्राप्त कर लिया है जो भारत के संवैधानिक अधिकार के खिलाफ है जो संविधान की मूल भावना के खिलाफ है।
इन तीन कानूनों में पुलिस को पहले से भी ज्यादा ताकत देकर भारत के आम नागरिकों के मौलिक अधिकारों को छीनने का रास्ता बना दिया है जिससे सरकार के किसी निर्णय का व्यापक विरोध प्रदर्शन को दबाने के लिए इस धारा का उपयोग किया जा सकता है।
अंत में हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि किसी भी सुधार को लागू करने से पहले विविध दृष्टिकोणों को समायोजित करने के लिए सामान्य जनता सहित हितककारको को शामिल करते हुए एक परामर्श प्रक्रिया को अपनाते हुए नए कानूनों का निर्माण करना चाहिए था जिससे मानवाधिकारों की रक्षा, संविधान मूल भावना, सुसंगत कानूनी ढांचा, प्रौद्योगिकी एकीकरण और कानून को लागू करने के लिए क्षमता का निर्माण कर सकें।
इन प्रगतिशील कदमों को आगे बढ़ाकर एक राष्ट्र के रूप में हम एक आपराधिक न्याय प्रणाली की दिशा में कार्य कर सकते हैं। जो विधि के शासन को कायम रखती है मानवाधिकारों की रक्षा करती है और सामान्य जन की विविध आवश्यकताओं को प्रभावी ढंग से पूर्ण करती है।
हम लोग किताबों के नाम और किताबों की धाराओं के परिवर्तन से कुछ भी हासिल नहीं कर सकते हैं हमें अगर वास्तव में कुछ करना है तो न्यायिक संस्थाओं को हर दृष्टि से मजबूत करना होगा तब ही कानूनों में परिवर्तन करना सार्थक होगा।

लेखक: एडवोकेट डूंगरसिंह नामा
जिला एवं सेशन न्यायालय, बालोतरा
(एमए, एलएलएम, डीसीसीए)
सम्पर्क- 8104200602

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