• जागो हुक्मरान न्यूज़
राजस्थान की धरती शूरवीरों तथा सन्तों की रही है। यहाँ पर विभिन्न सम्प्रदाय के सन्तों ने कठोर तपस्या की है और लोगों को सत्य का मार्ग बताया है। ऐसा ही तपोभूमि स्थल टांकला हैं। जो कि जोधपुर-हाईवे पर स्थित है। यह जोधपुर से 122 किमी.तथा नागौर से 35 किमी. की दूरी पर स्थित बहुत ही रमणीक व धार्मिक तथा आध्यात्मिक केंद्र हैं। इसी सड़क मार्ग पर वीर तेजाजी की कर्म स्थली खरनाल है। नागौर जिले के रेण कस्बे में राम-स्नेही सम्प्रदाय की आचार्य पीठ है। इस पीठ के संस्थापक स्वामी श्री दरियाव जी महाराज थे। टांकला गाँव दरी-पट्टी उद्योग के लिए भी विश्व विख्यात है।
पूर्व रियासत काल में टांकला गाँव में श्री किशनदास जी महाराज का जन्म विक्रम संवत 1746, माघ मास शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि, शुक्रवार को मेघवाल कुल में हुआ था। स्वामी किशनदास जी महाराज के माताजी का नाम श्रीमती महादेवी तथा पिताजी का नाम श्री दासा राम जी मेघवाल था। इनका विवाह रेण गाँव में गोबरी बाई के साथ हुआ था तथा एक सुपुत्र भी हुआ जिसका नाम आदूराम जी था। उस समय समाज में छुआछूत, ऊंच-नीच व भेदभाव चरम सीमा पर था। लोगों को सामन्त व जागीरदार बेगार करवाते थे। आम लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि व पशुपालन था। लेकिन मेघवाल समुदाय के लोग कृषि कार्य के साथ साथ कपड़े बुनने का कार्य भी करते थे। श्री किशनदास जी महाराज गृहस्थ जीवन का पालन करते हुए ईश्वर की भक्ति भी करते थे। उन्होंने अनन्त श्री दरियाव जी महाराज से दीक्षा ग्रहण कर टांकला गाँव में अपने खेत में एक खेजड़ी के पास बैठकर 27 वर्ष तक कठोर तपस्या की तथा आत्मज्ञान प्राप्त किया। आस-पास के क्षेत्र में उनके ज्ञान व उपदेशों की चर्चाएं होने लगी। टांकला गाँव को आम लोग किशनाराम जी का टांकला कहते थे। कहते हैं कि एक बार टांकला गाँव के ठाकुर यात्रा के दौरान हरनावा गाँव में रुके तो वहाँ के लोगों ने उनके गाँव के बारे में पूछा जिस पर ठाकुर साहब ने बताया कि वे टांकला के जागीरदार है। जिस पर सभा में बैठे लोगों ने कहा कि किशनदास जी का टांकला। लोगों के मुँह से यह बात सुनकर ठाकुर बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने गाँव में आकर मेघवाल समाज के लोगों पर अत्याचार करना शुरू कर दिया,जिससे परेशान होकर किशनाराम जी महाराज के परिवार के लोग टांकला गाँव को छोड़कर अन्यत्र बस गए। लेकिन किशनदास जी महाराज वहीं पर अपनी तपस्या में लीन रहे। एक दिन ज्येष्ठ मास की भरी दोपहरी में ठाकुर घोड़े पर सवार होकर किशनदास जी महाराज की कुटिया की ओर निकले, बीच में तालाब पर घोड़ा रुक गया। ठाकुर ने क्रोधित होकर घोड़े को खूब मारा जिस कारण उसने वहीं दम तोड़ दिया। यह सारा दृश्य किशनदास जी महाराज से देखा नहीं गया और वे अपनी कुटिया से तालाब पर आए तथा ठाकुर से अनुनय विनय किया। लेकिन ठाकुर का क्रोध सातवें आसमान पर चढ़ गया और उसने कहा कि तुम मेघवाल जाति के हो,तुम्हारा काम हमारी बेगार निकलना है। मेरे गाँव का नाम तुम्हारे नाम से कैसे प्रसिद्ध है? काफी समय तक आपसी संवाद होने के बाद ठाकुर ने कहा कि अगर तुम इतने बड़े तपस्वी हो तो मुझे मतीरा (तरबूज) खाने के लिए दो तो मैं तुम्हें मानूंगा कि तुम पहुँचे हुए सन्त हो। इस पर स्वामी किशनदास जी महाराज ने अपनी झोली से मतीरा निकाल कर ठाकुर को दिया और कहा कि लो खाओ। लेकिन तुमने एक सन्त को सताया है, इसलिए तुम्हारी सात पीढ़ियों तक कोई वारिश नहीं होगा।
कहते हैं कि तब से गोद लिया जाता रहा है। यह चमत्कार देखकर ठाकुर बहुत पश्चाताप करने लगा। स्वामी किशनदास जी महाराज ने 444 पर्चे दिए, उन्होंने अनेक वाणियों की रचना की। वर्तमान में टांकला में भव्य मन्दिर का निर्माण करवाया गया है। निर्माण कार्य सन 2011 में प्रारम्भ हुआ जो सन 2019 में पूरा हुआ। यहाँ हर पूर्णिमा को सैंकड़ों श्रद्धालु आते हैं और अपनी मन्नत मांगते हैं। माघ व भाद्रपद मास की पूर्णिमा को भव्य मेले का आयोजन होता है। स्वामी श्री किशनदास जी महाराज ने विक्रम संवत 1825 असाढ़ मास की कृष्णा पक्ष सप्तमी तिथि शुक्रवार को जीवित समाधि ले ली।
लेखक: मास्टर भोमाराम बोस
(प्रदेश संगठन मंत्री: राजस्थान मेघवाल परिषद)