• जागो हुक्मरान न्यूज़

पहले शादियों में शहनाई बजती थी। हर मांगलिक कार्य के अवसर पर ढोल-थाली की थाप पर महिलाएं मंगल गीत गाती और नृत्य करती थी। धीरे-धीरे शहरों में बैंडबाजों का प्रचलन शुरू हुआ। शादी-विवाह,विदाई समारोह, पर्व-उत्सव आदि अवसरों पर बैंडबाजे अपनी मधुर स्वर लहरियों बिखेरते थे। लेकिन गांवों में वही पुरानी परंपरा अपनाई जा रही थी। यदाकदा कहीं-कहीं टेपरिकार्डर भी बजते थे।

लेकिन वर्तमान में देश के सभी भागों में यहाँ की मूल कला और संस्कृति विलुप्त होती जा रही है। बड़ी-बड़ी पार्टियों में डिस्को डांसर बुलाए जाते हैं और फूहड़ डीजे सांग पर फूहड़ नृत्य होने लगा है। हालांकि मनोरंजन की दृष्टि से देखा जाए तो जीवन में वाद्य यंत्रों व नृत्य का विशेष महत्व है। मनोविज्ञान की दृष्टि से भी यह शारीरिक एवं मानसिक रूप से फायदेमंद ही है। लेकिन वर्तमान में हर जगह फूहड़पन का होना भारतीय संस्कृति के विपरीत प्रभाव डालने वाला है। आज भी भारतीय समाज में रिश्तों को बहुत महत्व दिया जाता है। हर रीति-रिवाज में सादगी और अपनत्व की भावना विद्यमान रही है। लगभग सभी जातियों के सामाजिक रीति-रिवाजों में सम रूपता ही है। परंतु आजकल ऐसा नहीं हो रहा है। कई मांगलिक अवसरों पर भी शराब, अफीम, डोडा-पोस्त आदि नशीले पदार्थों का सेवन किया जाता है। शादियों में आवश्यकता से अधिक फिजूलखर्ची व दिखावा किया जाता है। जहां पहले सोने-चांदी के आभूषणों को महत्व दिया जाता था,वहीं आजकल महँगे कपड़े, टेंट, डीजे, स्टेज शो आदि पर व्यय किया जाता है। आजकल बारात में अधिक से अधिक गाड़ियों का होना भी लोग अपना रुतबा समझने लगे हैं। कहीं-कहीं तो हेलीकॉप्टर में दूल्हे-दुल्हन का बैठकर आना भी समाज में सुर्खियों बिखरते हैं। वैसे हाथी, घोड़े, बैलगाड़ी, ऊँट आदि पर पूर्व में भी बारातें आती थी। घोड़े पर बैठकर तोरण मारने की रस्म सदियों पुरानी है लेकिन यह केवल एक वर्ग विशेष के लोगों तक ही सीमित थी। विवाह में दूल्हे-दुल्हन की पोशाक पर जातीय प्रतिबन्ध था। लेकिन आजादी के बाद भारत के आम नागरिकों को समानता, न्याय, स्वतंत्रता व बन्धुता का अधिकार मिलने के कारण हर व्यक्ति अपनी सामर्थ्य अनुसार जीवन जीने के लिए स्वतंत्र हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम अपनी स्वतंत्रता के अधिकार की आड़ में कुछ भी कर लें। हाँ, हम लोग शादी-विवाह,मांगलिक कार्यों आदि के साथ साथ सहज रूप से जीवन जीने के हकदार हैं लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि हम लोग फिजूलखर्ची व नशा प्रवृत्ति में डूब जाएं। जिससे कि हमें हमारी चल-अचल संपत्ति को ही बेचना पड़े या हम समाज व परिवार से अलग-थलग पड़ जाएं। आजकल हम देखते हैं कि हर प्रोग्राम में डीजे को बढ़ावा दिया जा रहा है। बारात में डीजे का बजना अच्छी बात है लेकिन अक्सर ज्यादातर युवा शराब के नशे में धुत होकर डीजे पर डांस करते पाए जाते हैं। यह अशोभनीय व असामाजिक है। इस पर चिंतन, मनन किया जाना चाहिए। मांगलिक कार्यक्रमों में शराब आदि नशीले पदार्थों पर पूर्ण पाबन्दी रहनी चाहिए ताकि सभी लोग आनंद व उमंग के साथ उक्त कार्य सम्पूर्ण कर सके। आजकल जम्मा-जागरण, सत्संग आदि अवसरों पर भी डीजे का ही प्रचलन है। ध्वनि प्रदूषण स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भी है। इससे अनेक बीमारियों होने का भी खतरा है। हमें सुशिक्षित व आर्थिक रूप से सम्पन्न बनने के लिए प्रयास करने चाहिए और सभ्य समाज के निर्माण के लिए कार्य करना चाहिए।

लेखक: मास्टर भोमाराम बोस
(प्रदेश महामंत्री: भारतीय दलित साहित्य अकादमी, राजस्थान प्रदेश)

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